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अफजल से कसाब तक आखिर क्या चाहती है कांग्रेस
विभाजन के बाद से भारत के लिए नासूर बन चुके पाकिस्तान में चल रही आतंकवाद की नर्सरी में तैयार हो रही पौध बेहद सुनियोजित तरीके से भारतीय खून को पानी की तरह बहाने में लगे हैं, लेकिन केन्द्रीय सत्ता पर लगातार एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस चुप बैठी है। उसके प्रवक्ता बोलते जरूर है लेकिन जब भी बोलते हैं तो ऐसा बोलते हैं कि तन बदन सुलग कर रह जाता है। संसद पर हमला कब हुआ, कैसे हुआ, कौन शहीद हुआ? इन सबालों को जनता भले ही न भूले लेकिन कांग्रेसनीत सरकार भूल चुकी है। यही कारण है संसद पर हमले का आरोपी अफजल गुरू मजे से तिहाड़ में बिरयानी खाकर जिंदा है। ऐसी ही एक दूसरा नराधम कसाब है। जिसको सिपाही की एक गोली उसके अंजाम तक पहुंचा सकती थी लेकिन वाह री सरकार उसका मुकदमा है कि खत्म होने का नाम नहीं लेता। तिस पर उसकी दया याचिका के कागज तो शायद ही दिल्ली में लौटकर महामहिम के पास पहुंचे, क्योंकि राष्ट्रपति भवन के बगल में स्थित गृहमंत्रालय एवं दिल्ली सरकार से सिफारिश का एक खत ही इतनी सुस्त रफ्तार से चल रहा है कि शायद ही फांसी के फंदे पर कोई आतंकी लटक पाये। हां कांग्रेस सरकार ने भगवा आतंकवाद पर जरूर सख्ती दिखायी। इसके लिए वह बधाई की पात्र है। आतंक का रूप कोई भी क्यों न हो लेकिन उसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता लेकिन दूसरी ओर बटला हाऊस कांड में आतंक की जड़ों में मठ्ठा डालने से जांच एंजेसियों को रोक दिया गया। जिसके चलते जांच एंजेसियों की तेजी के चलते लगभग अंतिम सांसे गिन रहे इंडियन मुजाहिदीन को प्र्राणवायु मिल गयी। इसका नतीजा पुणे में जर्मन बेकरी के बाद बनारस में ताजा धमाके के रूप में सामने आया है। सरकार न चेती तो अभी जांच एंजेसियां आसानी से अपने काम को अंजाम नहीं दे पायेंगी। भारतीय पुलिस या जांच एंजेसियां इस बात में पूरी तरह से सक्षम हैं कि वह आतंकी चूहों को उनके बिलों से निकालकर कालकोठरी में पहुंचा दें लेकिन यहां से उनके मन में दहशत भरने का काम सरकार का होता है। इस मुद्दे पर कांग्रेस सरकार फेल साबित हुई है। भाजपा पर साफ्ट नीति अपनाने का आरोप लगाने वाली कांग्रेस सरकार को कोई भी कार्यकाल ऐसा नहीं रहा। जिसमें आतंकियों के मन में दहशत पैदा करने का कोई साहसिक फैसला लिया गया होता। आखिर क्यों आतंकवादियों के खिलाफ हमारी सरकार सैन्यअदालत के जरिये कम समय में सुनवाई नहीं करती। अपील एवं दलील में समय जाया करने की जगह ऐसे मामलों में विशेष न्यायाधिकरण गठित हों जो खुद साक्ष्यों को परख कर अपना फैसला दें। न तो आतंकवाद के नाम पर किसी को लम्बे समय तक जेल में रखा जाये, न ही दोषी आतंकियों के लिए कोई कागजी खेल हो। 13 दिसम्बर संसद पर हमले की बरसी फिर आ गयी है। कांग्रेस को एक मौका मिला है कि वह महामहिम से फरमान लेकर 13 दिसम्बर को कसाब एवं अफजल गुरू को एक साथ फांसी पर लटकाये। यदि हम अब भी न जागे तो शायद जांच एंजेसियां भी थकहार कर रूटीन पर ही चलती रहेंगी। कसाब को जिंदा रखने की कीमत आखिर भारतीयों की जेब से क्यों जानी चाहिए? यह सबाल रहरहकर आम भारतीय को परेशान करता है। पहली दफा एक पाकिस्तानी आतंकवादी के जिंदा पकड़े जाने पर सरकार बहुत खुश थी। जब पाकिस्तान में आतंक की नर्सरी को उजाड़ने का समय था। प्रधानमंत्री संयम का पाठ पढ़ाते हुए इशारा कर रहे थे कि अब जल्द ही हम पाकिस्तान को विश्वमंच पर नंगा कर देंगे लेकिन हुआ इसके उलट ही। विकलीस के खुलासे यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि हमारी मदद कोई नहीं करेगा। यह जानते सभी हैं लेकिन रोना हम दुनिया के दरोगा अमेरिका के आगे रोते हैं। सबसे मजे की बात तो दिग्ग्जी राजा ने की है। जिस बात को बोलने पर कांग्रेस वरिष्ठ मुस्लिम नेता एआर अंतुले की जबान पर ताला लगाया था। उसे फिर से चाशनी में लपेट कर दिग्गी राजा ने परोसा है। एक पल को अगर यह मान भी लिया जाये कि करकरे को मारने का काम कसाब ने नहीं बल्कि हिन्दू आतंकवादियों ने किया था तो कम से कम दिग्गी राजा को कोर्ट में कसाब के पक्ष में गबाही देनी चाहिए थी। अगर उनकी नजर में कसाब गुनाहगार नहीं है तो रिहाई के लिए ही उन्हें काम करना चाहिए। देश का कोई मुसलमान आतंकवादियों के साथ नहीं है। फिर कसाब या अफजल गुरू के जरिये कांग्रेस क्यों सियासत की रोटियां सेंक रही है। समझ में नहीं आता। बिहार में कांग्रेस को इसी दोगली के चलते हिंदू एवं मुस्लिम जनता ने नकार दिया है। यदि कांग्रेस न सुधरी तो यूपी में भी आतंक की सियासत का हिसाब उससे मुस्लिम जनता ऐसा बसूलेगी कि वह एक ही झटके में साफ हो जायेगी।
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