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गुरू को पीछे छोड़ अंहिसा के अस्त्र को और भी मारक बनाया है उनके शिष्य अन्ना ने
अन्ना के आन्दोलन में एक नारा तेजी से चल रहा है, ‘अन्ना नहीं ये आंधी है, आज के युग का गांधी है’ इस नारे में कम से कम मैं आधा इत्तेफाक रखता हूं। यह सच है कि अन्ना बाकई में आंधी है लेकिन वह आचरण, व्यवहार एवं अपनी कार्यशैली के चलते कहीं से भी गांधी नहीं हैं। अंहिसा के उपयोग के मामले में वह अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ संघर्ष करने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से भी कई मामलों में आगे निकल चुके हैं। रक्तहीन क्रांति के वह जनक हैं। व्यवस्था में परिवर्तन की जंग महात्मा गांधी ने भी लड़ी थी और सिस्टम को चेंज करने के लिए आन्दोलन का बिगुल समाजसेवी अन्ना हजारे ने भी फंूका है। जहां एक ओर महात्मा गांधी भारत की जनता के सहारे गोरे अंग्रेजों से लड़ रहे थे, वहीं दूसरी ओर अन्ना हजारे अपने ही देश की जनता को गुलाम मानकर राजसत्ता का सुख लूटने वाले काले अंग्रेजों से लड़ रहे हैं। आज के युग में तो कोई भी राजनेता अन्ना हजारे की तरह जनता का भरोसा जीतने में कामयाब नहीं है। ऐसे में यदि कोई इसको प्रायोजित कार्यक्रम मानता है तो यह उसकी नितांत मूर्खता ही होगी।
बहुत से लोगों को यह हजम भी नहीं होगा आखिर मेरे द्वारा या भारत के आम आदमी द्वारा अन्ना हजारे को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी एवं जयप्रकाश नारायण सरीखे इतिहास नायकों से आज के दौर में आगे क्यों कहा जा रहा है। इसका पहला कारण अन्ना का सत्ता के गलियारे का केन्द्रबिंदु न होना। एक सिपाही की नौकरी से रिटायरमेंट लेकर 1980 से आज तक भ्रष्टाचार के खिलाफ लगातार अलख जगा रहे अन्ना अपने हर मोर्चे पर सफल साबित हुए हैं। आजादी के आन्दोलन का गहरा ज्ञान रखने वाले जानकार मानते हैं कि महात्मा गांधी को भारत में कांग्रेस सरीखे संगठन की बागडौर थाली में परोस कर दी गयी थी। इसके बाद भी गांधी जी द्वारा छेड़े गये सभी आन्दोलन चरम पर पहुंचने के साथ ही वापस ले लिये गये। अंहिसा के पुजारी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा चलाये गये प्रत्येक आन्दोलन में जनता की ओर से प्रतिकार हिंसा के रूप में किया गया। ऐसा नहीं कि अंग्रेजी सत्ता पर कांग्रेस के आन्दोलनों का असर न पड़ा हो लेकिन राष्ट्रपिता को जब भी अंग्रेजों ने जेल भेजा, रेल की पटरियां उखाड़ी गयी, 1942 के भारत छोड़ों आन्दोलन के दौरान तो कई जगह बहुत हिंसा जनता की ओर से हुई। अंग्रेजों के मन में क्रान्तिकारियों द्वारा की गयी कार्यवाहियों का भय तो था ही, साथ में कांग्रेस के प्रत्येक आन्दोलन में अंहिसा का दायरा लांघना भी उनको परेशान कर रहा था। 1945 का नौसेना विद्रोह तो अंग्रेजों के लिए खतरे की घंटी बजा गया। इतिहास के पन्नों को अगर आप पलटों तो महात्मा गांधी का नेहरू मोह आपको साफ नजर आयेगा। अन्ना के अब तक के व्यवहार में जनता को किसी खास व्यक्ति के लिए मोह नजर नहीं आता। अन्ना को शांति व्यवस्था के नाम पर जेल में डालने वाली सरकार के प्रति भले ही जनता में कितना ही गुस्सा क्यों न उमड़ा हो लेकिन तिहाड़ को घेरने वाली जनता ने कहीं भी हल्की तोड़फोड़ की हो, अभी तक ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिला है। शिक्षित, अशिक्षित, गरीब, अमीर, जातिबंधन तोड़कर जनता सड़कों पर आयी तो बाबा रामदेव की तरह अन्ना को तड़ीपार करने की मंशा पाले सरकार एकदम से बैकफुट पर आ गयी। अंग्रेजों की जेलों में सुखसुविधा एवं ए श्रेणी की सुविधाएं लेकर रहने वाले नेताओं ने छुट्टी का फरमान मिलने पर अपना लक्ष्य पूरा हुए बाहर आने का फरमान सुनाया हो, ऐसा इतिहास में नहीं मिलता। सत्ता की मर्जी से जेल जाने वाले अन्ना ने अपनी मर्जी से जेल से बाहर आने का ऐलान करने के साथ ही उस पर टिककर ऐसा कारनामा कर दिखाया है जो उन्हें इतिहास पुरूषों में शिखर पर पहुंचायेगा। आपातकाल से पूर्व जेपी आन्दोलन में जनता ने अपना गुस्सा दो साल बाद हुए चुनाव के दौरान दिखाया था। इमरजेंसी के दौरान विपक्ष से लेकर मीडिया तक घुटनों के रेंगता ही नजर आया था। वर्ष 2011 में भी ऐसे ही हालात पैदा हो रहे हैं। जनता को अन्नारूपी रामबाण मिला तो उसे लगा कि अब भ्रष्टाचार के रावण का अंत हो सकता है। यही जनता पहले रामदेव के साथ दमन का शिकार हुई। सरकार के क्रूर रबैये को जानने के बाद भी जनता अन्ना की एक हुंकार पर दमन की चिंता किये बगैर निकल पड़ी। यह किसी राजनीतिक दल की रैली नहीं थी। पूरे महीने अनशन के नाम जनता द्वारा करना ही अन्ना को महान बनायेगा।
अंहिसा का रास्ता भारत को दिखाने का श्रेय राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को जाता है। इसमें कोई दोराय नहीं है लेकिन 1857 के पहले स्वाधीनता संग्राम में पूरे देश के एकजुट न होने एवं अंग्रेजी दमन के बाद कांग्रेस के रूप में मिले सेफ्टी बाॅल्व ने भारतीय जनता को अंहिसा के रास्ते पर चलना सिखाया। यही कांगे्रस थी जिसमें लाल,बाल, पाल की तिकड़ी ने कांग्रेस को आक्रामक बनाया। जब महात्मा गांधी भारत वापस आये, तब अंग्रेजी दमन के कारण कांग्रेस का नेतृत्व लगभग खाली था। क्रान्तिकारी विचारधारा को अंग्रेजी सरकार कुचल रही थी। महात्मा गांधी ने भी राजनीतिक दल कांग्रेस को जनता के साथ जोड़कर आजादी के लिए संग्राम का जो खाका तैयार किया। उसमें अंहिसा का प्रयोग जनता को खुलकर विरोध के आने को प्रोत्साहित करता था। हालांकि इतिहास के दुखद पन्नों में एक उल्लेख भी मिलता है, जब पूरा देश शहीदे आजम भगत सिंह एवं उनके साथियों की फांसी के खिलाफ उनसे अनशन एवं अंहिसा के हथियार का इस्तेमाल अंग्रेजी के खिलाफ कराना चाहता था। उस समय महात्मा गांधी इससे कन्नी काट गये। अन्ना के आन्दोलन को यदि आप बारीकी से देखे तो दो बातें साफ हो जायेगी। दो नारों का ज्यादा जोर है बंदेमातरत एवं इंकलाब जिन्दाबाद ये दोनों ही नारे आम जनता द्वारा बोले जा रहे हैं। अंहिसक जनता इस नये राष्ट्रनायक को इतिहास का सफलतम नायक बनाने में जुटी है। संसद में बैठकर जनता को औकात एवं अपने अधिकार गिनाने वाले किसी भी मंत्री या प्रधानमंत्री में इतना नैतिक साहस भी नहीं बचा कि उनकी एक अपील पर घरों से बाहर निकली जनता अन्ना को अकेले छोड़कर अपने घर वापस चली जाये। रही बात लालू सरीखे जनता की अदालत में खारिज किये जा चुके भ्रष्टाचार के नायकों की तो वह खुद कलमाड़ी सरीखें से पहले मुख्यमंत्री रहते हुए चारा घोटाले के आरोप में जेल हो आये हैं। यह अन्ना का आत्मवल है कि उनका चेहरा चमक रहा है। संत से लेकर असंत तक, सदाचारी से लेकर भ्रष्टाचारी तक आज अन्ना की मुहिम का झंडा उठाये है। रिश्वत देकर अपना काम कराने वाले या रिश्वत लेकर काम करने वाला तबका भी आज अन्ना के साथ खड़ा है। राजनेताओं को छोड़कर सभी चाहते हैं कि आज भ्रष्टाचार का समूल नाश हो। वकील से मंत्री बने कपिल सिब्बल अन्ना हजारे से लेकर बाबा रामदेव से पहले चरण के आन्दोलन में बात कर किसी को अनशन एवं तप के शाब्दिक फेर में फंसाने एवं किसी को संयुक्त ड्राफ्टिंग का झांसा देने के मामले में पूरी तरह से सरकार को बचाने का रास्ता तैयार करते रहे। बेचारे योगगुरू पर लाठी चलाने से पहले इसी सरकार ने बाबा द्वारा विदेशी बैंक में जमा काले धन का राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित करने की मांग पर सहमति जतायी थी। जब सरकार की फांस निकल गयी तो अन्ना एवं उनकी टीम को दूध की मक्खी की तरह निकालकर फेंकने के बाद अपनी मनमर्जी का बिल संसद में पेश कर अब कानून बनाने को संसद का अधिकार बताकर विपक्ष को भावनात्मक ब्लैकमेल करने वाले राजनेता जनता द्वारा भ्रष्टाचार के खात्मे को दी जा रही जनलोकपाल रूपी जादू की छड़ी को सम्हालने के लिए तैयार नहीं हैं। प्रधानमंत्री को जांच के दायरे से बाहर रखने की जिद्द करने वाले राजनेता या विद्धान भूल जाते हैं कि इसी कांग्रेस के एक पूर्व प्रधानमंत्री स्वं. राजीव गांधी अपने जीवनकाल में बोफोर्स के दाग से नहीं निकल पाये तो उनकी विरासत सम्हालने वाले नरसिम्हाराव के खिलाफ सांसदों की खरीद का मुकदमा चलाकर अदालत ने उन्हें सजा भी दी। सुखराम को दूरसंचार में घोटालों का पहला जनक माना जा सकता है। जनता भाजपा, कांग्रेस, थर्ड फ्रंट समेत सभी विकल्प देख चुकी है लेकिन भ्रष्टाचार से कोई लड़ने को संजीदा नहीं है। अन्ना के अनशन में एक मांग और जुड़नी चाहिए, वह यह कि जनप्रतिनिधियों को मिलनी वाली सुविधाएं समाप्त हों, आवास की व्यवस्था खत्म हो, कुल मिलाकर यदि वह भी आम आदमी ही बनकर संसद को चलायें तो शायद महंगाई पर तीर चलाने से पहले सरकारी पक्ष कुछ सोचकर चलेगा। जांच सभी की हो। अदालत से लेकर कार्यपालिका तक स्वत्रंत जांच के दायरे में आये। अदालतों में मुकदमों का निस्तारण तीव्र गति से हो। कहीं गलत हो रहा हो तो लोकपाल हो। रहा सबाल लोकपाल के निरकुंश होने का तो यह अब समय की मांग है। यदि टीएन शेषन ने चुनाव आयुक्त को उसकी गरिमा प्रदान न की होती तो शायद नेता अब भी आराम से चुनाव जीत रहे होते। आज टीएन शेषन की निरंकुशता का परिणाम है कि नेताओं को तमाम पाबन्दियों के साथ आचारसंहिता की सख्ती झेलनी होती है। भ्रष्टाचार से लड़ने वाली सभी संस्थाओं को एक कर उसको ही लोकपाल का नाम देकर स्वत्रंत कर दिया जाये। देश में पटवारी से लेकर प्रधानमंत्री तक जांच के बाद नियमानुसार कम समय में सख्त एक्शन हो तो सभी कुछ सम्भव है। आज जनता इसी से दुखी है। इसलिए अन्ना के साथ पूरे अनुशासन में सम्यक परिवर्तन की ओर बढ़ रही है। सरकार भले ही कुछ कहे लेकिन इस दफा अंहिसा का हथियार जिस गांधी के चेले के हाथ में है। वह अपनी बात मनवाने के लिए अपने शरीर को साधने में भी सक्षम है। मोहित कुमार शर्मा पत्रकार
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